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जातिवाद सिद्धांत से ज्यादा व्यवहार के रूप में दिखता है। व्यवहार उस सिद्धांत को बनाए रखने की हरचंद कोशिश करता है। जातिवादी नहीं दिखने की कोशिश में सफलता हासिल की जा सकती है, लेकिन जातीय भावना इस कदर गुंथी हुई है कि थोड़ा-सा भी असंतुलन उसे प्रकट होने से नहीं रोक सकता। कवि शमशेर कहते हैं कि बात ही भीतर की सच्चाई को बोल देती है। जातिवादी नहीं दिखना प्रबंध की योग्यता हो सकती है, लेकिन जातीय भावना अपने रोज-ब-रोज के जीवन से ही दूर करनी होती है। जिस तरह से रोजाना के जीवन में जातीय भावना होती है उसे उसी अनुपात में तोड़ने की कोशिश करनी होती है। खाने-पीने, उठने-बैठने की सब जगहों पर किसी जाति की उपस्थिति पर हमारे बीच कैसे भाव हिलोरें लेने लगते हैं, इसकी पड़ताल करें तो अपने भीतर के जातिवाद की सतह दिखाई देने लगेगी।
वर्तमान परिस्थिति में बिहार में जातिवाद की प्रबलता एक बार फिर दिखाई देने लगी है। चुनावों की दहलीज पर ऐसा होना आश्चर्यजनक तो नहीं परंतु घातक जरूर है। बिहार में राजनीतिक एजेंडा फिर से जातीय समीकरण को लेकर तय किया जाने लगा है। विकास के मुद्दे को मुख्यधारा में लाने वाला नेतृत्व भी धीरे-धीरे अपनी प्राथमिकताएँ भूलने लगा है। दरअसल जातिवाद-विरोधी भी जातिवाद की पहचान समय और अवसर के रूप में ही करते दिखते हैं। जातिवाद-विरोधी भी सामाजिक न्याय की आड़ में जातिवाद के हिस्से बन जाते हैं। फिर यही बात सांप्रदायिकता-विरोधी तत्वों के संदर्भ में भी सटीक बैठती है। किसी मुद्दे पर कोई अचानक जातिवादी नहीं हो सकता। न ही कोई जातिवादी अचानक सांप्रदायिक दिखता है। जातिवादी है तो वह सांप्रदायिक भी होगा, यह विचार अभी स्वीकृति ही नहीं पा सकी है।
आज यह समझने कि जरूरत है कि बिहार में विकास के स्थान पर जातिवाद मजबूत हो रहा है। आखिर क्या कारण है कि इस दौर में वे तमाम संस्थाएं और लोग जातिवाद की पकड़ में आ जाते हैं, क्या इसलिए कि उनके पास उसे न दिखने देने के जो तौर-तरीके थे वे दिखने लगे हैं?
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